मेरे भगवान जी , खुद मै ही लीन समाधी-स्थिर हैं ;
अपनी समाधी मै स्थिर, प्रभु खुद मै लीन "निर्विकार" हैं !
इस अवस्था मै कहीं मद्नम सी इच्छा का जागृत होना ,
या खुद मै खुद को जानने की चेष्टा करना ही "विकार" हे ,
जो स्थिर-समाधी मै भीतर कहीं अंश-रूप से भेद करता हे ,
जिससे समाधी मै स्थिरता उस अंश-रूप मै धूमिल होती हे ,
और इस तरह समाधी मै "अस्थिरता" का आगाज होता हे !
यह अस्थिरता का फेलाव ही हमारी इर्द-गिर्ध पहेली 'प्रकृति' हे !
मेरे दोस्त, यह सत्य वह सत्य हे जो शब्दों का मोहताज नहीं हे ,
जो यह भेद का जान जाता हे वो भगवान जी का 'प्यारा' कहलाता हे ,
क्योंकि यह भेद वह तभी जान पाता हे जब उसमे समर्पण आता हे ,
और जहाँ 'समर्पण आ जायेगा वहां "प्यार" खुद-ब-खुद ही आ जाता हे !
मेरे दोस्त ! जितना हम समझे हैं, आओ उसको अपने जीवन मै देखते हैं !
समझते हैं केसे 'सहज' जिंदगी जीते हुए कोंई हमें 'अच्छा' लगने लगता हे ,
केसे 'आकर्षण' हमको मुगद कर अपने प्रभाव मै लेता हे, क्यों होता हे यह ?
क्यों हम उस अच्छा लगने की 'चाह' को बारबार अपने भीतर जीना चाहते हैं?
यह ही 'समर्पण' हे , जब एक बारी की चाह बारबार अपना अहसास चाहती हे,
अर्थात हम अपनी चाह को केंद्र मै ले अपने 'भाव' को बार बार अर्पित करते हैं ,
मेरे अच्छे दोस्त ! बस इतना सा ही कर हम संसार मै "प्यार' करते वा पाते हैं ,
इसी समर्पण से हम प्रभु के प्यारे 'भगत' कहलाते हैं , अपने प्रभु के हो जाते हैं !
अंततः इतना ही कहूँगा समझ सको तो समझ लो मेरे भगवन जी भी खुद मै ,
अपनी शक्ति से उत्पन 'प्रकृति' संग खुदही 'आकर्षण वश समर्पित-प्यार को जीते हैं!
इस सत्य को आप सभी भी जान सकते हो जब आप खुद अपने भीतर झांकते हो ,
हाथ जोड़ विनती हे दोस्त ! ये ही वह सत्य हे जिसके "आकर्षण" से हमारे भीतर ,
आत्मा पर प्रकृति अपनी छाप 'संस्कार' को अपने ऊपर धारण कर "आवरण' बनती हे ,
यह ही प्रभाव हे जो संस्कारों को चेष्टा मै उभार कर हम सबको कर्मो मै बांधता हे जी !
...... दीप !
PrabhuAshirvaad
Tuesday, February 16, 2010
Tuesday, February 9, 2010
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